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Posted - Feb 10, 2024

हम नियम क्यों नहीं मानते:आख़िर हम भारतीयों को ऐसा करने से क्या रोकता है? क्यों हम सर्वश्रेष्ठ विद्रोही बनने की होड़ में रहते हैं।

 हम नियम क्यों नहीं मानते:आख़िर हम भारतीयों को ऐसा करने से क्या रोकता है? क्यों हम सर्वश्रेष्ठ विद्रोही बनने की होड़ में रहते हैं।सार्वजनिक जीवन में कुछ दृश्य बहुत आम हैं। शायद हम सभी कभी न कभी इनका हिस्सा बनते हैं। सड़क पर एक व्यक्ति सिग्नल तोड़ता है और पीछे-पीछे सभी आगे बढ़ जाते हैं। रेलवे स्टेशन बस स्टैंड या जहां कहीं किसी कार्य के लिए पंक्तिबद्ध होना होता है वहां हम क़तार तोड़कर किसी रसूखदार का नाम लेकर नियमों को ताक पर रखकर आगे बढ़ जाते हैं। आसपास लिखे गए नियमों और दिशा-निर्देशों का पालन करना तो दूर ज़्यादातर लोग तो पढ़ने तक की ज़हमत नहीं उठाते हैं। यहां तक कि पर्यटक स्थल पर लगे सूचनापट तक नहीं पढ़ते जबकि उनमें तमाम जानकारियां होती हैं और वे आम लोगों की सुविधा व सहायता के लिए ही लगाए गए होते हैं।यह एक आम प्रवृत्ति है। जैसे, हम भारतीय हर जगह विलंब से पहुंचने को इंडियन स्टैंडर्ड टाइम कहकर व्यंग्य और मज़ाक़ में ही सही परंतु वाजिब ठहराने का प्रयास करते हैं वैसे ही नियम-क़ानूनों को तोड़ना भी एक हद तक सामान्य मान लिया गया है। आख़िर सब क्यों चलता है! इस प्रवृत्ति के ऐतिहासिक सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारण रहे हैं। सदियों की ग़ुलामी में आमजन ने देखा है कि रसूखदारों पर कोई क़ानून लागू नहीं होते हैं। ग़ुलामी के काल में अंग्रेज़ अफ़सरों ने जो कह दिया वही क़ानून हो जाता था और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी कई अधिकारसंपन्न वर्ग इसी दुष्प्रवृत्ति का शिकार रहे। शायद इसके चलते उपजे रोष की पूर्ति के लिए छोटे-मोटे नियम क़ानूनों को निरर्थक मानकर तोड़ने की मानसिकता धीरे-धीरे पनपी है।यही मानसिकता विरासत में मिलती है। एक बच्चा वयस्क होते तक सैकड़ों-हज़ारों बार ‘यहां कोई नियम-क़ानून नहीं हैं’, ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’, ‘कहीं कोई सुनवाई नहीं होती’, ‘सब पैसों का खेल है’, ‘भ्रष्टाचारी ही मज़े में हैं जैसे वाक्य सुन चुका होता है। ख़बरों में और आसपास ऐसे उदाहरण भी दिख ही जाते हैं। नियम तोड़ने पर सज़ा न मिलना भी नियमों की अवहेलना के लिए उकसाता है। चौराहे पर जो लोग ट्रैफिक लाइट की अनदेखी कर बढ़ जाते हैं